नई दिल्ली (एजेंसी)। यूएस राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने एक बार फिर से जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर भारत और चीन की आलोचना की है। ट्रंप ने कहा कि भारत, चीन और रूस में शुद्ध हवा और पानी तक नहीं है और ये देश विश्व के पर्यावरण के प्रति अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं।
ट्रंप ने ब्रिटिश चैनल ITV को दिए एक इंटरव्यू में ये बातें कही। पैरिस जलवायु समझौते से बाहर होने वाले ट्रंप ने दावा किया कि पूरी दुनिया में यूएस की जलवायु सबसे साफ है।
ट्रंप ने आगे कहा, मैंने यूएस में सबसे साफ जलवायु की बात आंकड़ों के आधार पर कही है। यूएस की जलवायु दिन-पर-दिन और अच्छी होती जा रही है। इसके बाद अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि चीन, भारत, रूस व कई अन्य देशों के पास ना तो साफ हवा है, ना ही साफ पानी है और ना ही प्रदूषण-सफाई को लेकर समझ।
उन्होंने कहा, अगर आप कुछ शहर जाएंगे…मैं इन शहरों का नाम नहीं लूंगा लेकिन मुझे पता है। अगर आप इन शहरों में जाते हैं तो आप सांस तक नहीं ले सकते हैं। ये देश अपनी जिम्मेदारी नहीं निभा रहे हैं।
डोनाल्ड ट्रंप ब्रिटेन के तीन दिवसीय दौरे पर पहुंचे थे। ट्रंप सोमवार को महारानी एलिजाबेथ और प्रिंस चार्ल्स से भी मिले और बकिंघम पैलेस के शाही भोज में भी शामिल हुए। ब्रिटेन के दौरे में ट्रंप ने प्रिंस चार्ल्स के साथ पर्यावरण के मुद्दे पर बात की। प्रिंस चार्ल्स लंबे समय से पर्यावरण के विनाश और जलवायु परिवर्तन को लेकर जागरुकता पर काम कर रहे हैं।
ट्रंप ने पैरिस समझौते पर अपने पूर्ववर्ती बराक ओबामा के फैसले को पलट दिया था और इस समझौते से अमेरिका को अलग कर लिया था। ट्रंप ने कहा था इस समझौते में यूएस को सजा दी गई थी जबकि चीन, भारत और यूरोप को सुविधा थी। जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पेरिस समझौते पर पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने हस्ताक्षर किए थे, लेकिन जून 2017 में ट्रंप ने इस समझौते से अलग होने की घोषणा कर विश्व को हैरत में डाल दिया था। ट्रंप ने इसे अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए खराब समझौता करार दिया था।
पेरिस जलवायु समझौते से अमेरिका के पीछे हटने से वैश्विक तापमान को कम करने और पर्यावरण संरक्षण की कोशिश को झटका लगा था। ट्रंप के इस फैसले का मतलब था कि अमेरिका की ओर से विकासशील देशों को पर्यावरण संरक्षण के लिए फंड नहीं मिलना। इस समझौते से अलग होने तक अमेरिका की ओर से इस फंड में 50 करोड़ डॉलर दिया जा चुका था। इस समझौते के तहत साल 2020 से विकसित देशों की ओर से हर साल जलवायु वित्तीय सहायता के लिए 100 अरब डॉलर देने का प्रावधान किया गया था।