क्या बेरोजगार युवाओं की फौज ही राजनीति की ताकत हैं

पुण्य प्रसून बाजपेयी

2019 के चुनाव का मुद्दा क्या है । बीजेपी ने पारंपरिक मुद्दो को दरकिनार रख विकास का राग ही क्यो अपना लिया । काग्रेस का कारपोरेट प्रेम अब किसान प्रेम में क्यो तब्दिल हो गया । संघ स्वदेशी छोड मोदी के कारपोरेट प्रेम के साथ क्यो जुड गया । विदेशी निवेश तो दूर चीन के साथ भी जिस तरह मोदी सत्ता का प्रेम जागा है वह क्यो संघ परिवार को परेशान नहीं कर रहा है । जाहिर है हर सवाल 2019 के चुनाव प्रचार में किसी ना किसी तरीके से उभरेगा ही । लेकिन इन तमाम मुद्द के बीच असल सवाल युवा भारत का है जो बचौर वोटर तो मान्यता दी जा रही है लेकिन बिना रोजगार उसकी त्रासदी राजनीति का हिस्सा बन नहीं पा रही है और राजनीति की त्रासदी ये है कि बेरोजगार युवाओ के सामने सिवाय राजनीति दल के साथ जुडने या नेताओ के पीछे खडे होने के अलावा कोई चारा बच नही पा रहा है । यानी  युवा एकजुट ना हो या फिर युवा सियासी पेंच को ही जिन्दगी मान लें , ऐसे हालात बनाये जा रहे है । मसलन आलम ये है कि देश में 35 करोड युवा वोटर । 10 करोड बेरोजगार युवा । छह करोड रजिस्ट्रड बेरोजगार । और इन आंकोडो के अक्स में ये सवाल उठ  सकता है कि  ये आंकडे देश की सियासत को हिलाने के लिये काफी है ।

जेपी से लेकर वीपी और अन्य आंदोलन में भागेदारी तो युवा की ही रही । लेकिन अब राजनीति के तौर तरीके बदल गये है तो युवाओ के ये आंकडे राजनीति करने वालो को लुभाते है कि जो इनकी भावनाओ को अपने साथ जोड लें , 2019 के चुनाव में उसका बेडा पार हो जायेगा । इसीलिये संसद में आखरी सत्र में प्रदानमंत्री मोदी रोजगार देने के अपने आंकडे रखते है ।
सडक चौराहे पर रैलियो में राहुल गांधी बेरोजगारी का मुद्दा जोर शोर से उठाते है और प्रधानमंत्री को बेरोजगारी के कटघरे में खडा करते है । और राजनीति का ये शोर ये बताने के लिये काफी है कि 2019 के चुनाव के केन्द्र में बेरोजगारी सबसे बडा मुद्दा रहेगा । क्योकि युवा भारत की तस्वीर बेरोजगार युवाओ में बदल चुकी है । जो वोटर है लेकिन बेरोजगार है । जो
डिग्रीधारी है लेकिन बेरोजगार है । जो हायर एजुकेशन लिये हुये है लेकिन बेरोजगार है । इसीलिये चपरासी के पद तक के लिये हाथो में डिग्री थामे कितनी बडी तादाद में रोजगार की लाइन में देश का युवा लग जाता है ये इससे भी समझा जा सकता है कि राज्य दर राज्य रोजगार कितने कम है ।

मसलन  आंकोडो को पढे और कल्पना किजिये राज्सथान में 2017 में ग्रूप डी के लिये 35 पद
के लिये आवेदन निकलते है और 60 हजार लोग आवेदन कर देते है । छत्तिसगढ में 2016 में ग्रूप डी की 245 वेकेंसी निकलती है और दो लाख 30 हजार आवेदन आ जाते है । मध्यप्रदेश में 2016 में ही ग्रूप डी के 125 वेकेंसी निकलती है और 1 लाख 90 हजार आवेदन आ जाते है । पं बंगाल में 2017 में ग्रूप डी की 6 हजार वेकेंसी निकलती है और 25 लाख आवेदन आ जाते है । राजस्थान में साल भर पहले चपरासी के लिये 18 वेकेंसी निकलती है और 12 हजार 453 आवेदन आ जाते
है । मुबंई में महिला पुलिस के लिये 1137 वेकेंसी निकलती है और 9 लाख आवेदन आ जाते है । तो रेलवे ने तो इतिहास ही रच दिया जब ग्रूप डी के लिये 90 हजार वेकेंसी निकाली जाती है तो तीन दिन के भीतर ही आन लाइन 2 करोड 80 लाख आवेदन अप्लाई होते है । यानी रेलवे में ड्राइवर , गैगमैन , टैक मैन , स्विच मैन , कैबिन मैन, हेल्पर और पोर्टर समेत देश के अलग अलग राज्यो में चपरासी या डी ग्रूप में नौकरी के लिये जो आनवेदन कर रहे थे या कर रहे है वह कैसे डिग्रीधारी है इसे देखकर शर्म से नजरे भी झुक जाये कि बेरोजगारी बडी है या एजुकेशन का कोई महत्व ही देश में नहीं बच पा रहा है । क्योकि इस फेरहिस्त में 7767 इंजिनियर । 3985 एमबीए । 6980 पीएचडी । 991 बीबीए । करीब पांच हजार एमए और 198 एलएलबी की डिर्गी ले चुके युवा भी शामिल थे ।

यानी बेरोजगारी इस कदर व्यापक रुप ले रही है कि आने वाले दिनो में रोजगार के लिये कोई व्यापक नीति सत्ता ने बनायी नहीं तो फिर हालात कितने बिगड जायेगें ये कहना बेहद मुस्किल होगा । पर देश की मुस्किल यही नहीं ठहरती । दरअसल नीतिया ना हो तो जो रोजगार है वह भी खत्म हो जायेगा और मोदी की सत्ता के दौर की त्रासदी यही रही कि अतिरक्त रोजगार तो दूर झटके में जो रोजगार पहले से चल रहे थे उसमें भी कमी आ गई । केन्द्रीय लोकसेवा आयोग , कर्मचारी चयन आयोग और रेलवे भर्ती बोर्ड में जितनी नौकरिया थी वह बरस दर बरस घटती गई । मनमोहन सिंह के दौर में सवा लाख बहाली हुई । तो 2014-15 में उसमें 11 हजार 908 की कमी आ गई । इसी तरह 2015-16 में 1717 बहाली कम हुई और 2016-17 में तो 10 हजार 874 नौकरिया कम निकली । पर बेरोजगारी का दर्द सिर्फ यही नहीं ठहरता । झटका तो केन्द्रीय
सार्वजनिक उपक्रम में नौकरी करने वालो की तादाद में कमी आने से भी लगा । मोदी के सत्ता में आते ही 2013-14 के मुकाबले 2014-15 में 40 हजार नौकरिया कम हो गई । और 2015-16 में 66 हजार नौकरिया और खत्म हो गई । यानी पहले दो बरस में ही एक लाख से ज्यादा नौकरिया केन्द्रीय सार्वजिक उपक्रम में खत्म हो गई । हालाकि 2016-17 में हालत संभालने की कोशिश हुई लेकिन सिर्फ 2 हजार ही नई बहाली हुई । पर नौकरियो को लेकर देश को असल झटका तो नोटबंदी से लगा । प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के जरीये जो भी सोचा वह सब नोटबंदी के बाद काफूर हो गया । हालात इतने बूरे हो गये कि बरस भर में करीब दो करोड रोजगार देश में खत्म होगये । सरकार के ही आंकडो बताते है कि दिसंबर 2017 में देश में 40 करोड 97 लाख लोग के पास काम था । और बरस भर बाद यानी दिसंबर 2018 में ये घटकर 39 करोड 7 लाख पर आ गया । यानी ये सवाल अनसुलझा सा है कि फिर सरकार ने रोजगार को लेकर कुछ सोचा क्यो नहीं । या फिर देश में जो आर्थिक नीति अपनायी जा रही है उससे रोजगार अब खत्म ही होंगे या फिर रोजगार कैसे पैदा हो सरकार के पास कोई नीति है ही नहीं ।

ऐसे में आखरी सवाल सिर्फ इतना है कि सियासत ने युवा को अगर अपना हथियार बना लिया है तो फिर युवा भी राजनीति को अपना हथियार बना सकने में सक्षम क्यो नहीं है ।

(ये लेखक के निजी विचार हैं.) (ब्लॉग से साभार)

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