सत्ता का महासंग्राम 2019 : कांग्रेस का ‘ब्रह्मास्त्र’ चलेगा या पीएम मोदी का जादू

(अविरल समाचार). वरिष्ठ पत्रकार अनिल द्विवेदी बता रहे हैं कि हालिया लोकसभा चुनाव में पार्टी, नेता, मुददे और आम आदमी किस तरह फायदे और नुकसान में है. कांग्रेस ने 5 करोड़ लोगों को 72 हजार रूपये सालाना देने का जो वादा किया है, क्या वह राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनवा सकता है या एक बार फिर पीएम नरेन्द्र मोदी का जादू इस सता के महासंग्राम में चलेगा और भाजपा सत्ता में आएगी !

अनिल द्विवेदी

करोड़ों दिलों में उठ रहा सवाल यह है कि गलती से ही सही, क्या कांग्रेस का तीर निशाने पर जा लगा है.! जब से कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने गरीबों को छह हजार महीने देने की चुनावी घोषणा की है, तब से दोनों चुनावी कैंप में खलबली मची है. कांग्रेस को समझ नहीं आ रहा कि उसने क्या घोषणा की है! भाजपा को समझ नहीं आ रहा कि इस घोषणा का जवाब कैसे दे! सोशल मीडिया पर इसका सुझाव आया कि पीएम मोदी को घोषणा करना चाहिए कि यदि दुबारा सत्ता में आए तो हिन्दुत्व के तीनों मुददे हमेशा के लिए सुलझा देंगे.
लेकिन इस घोषणा से एक बात तो साफ हो गई कि कांग्रेस की न्यूनतम आय गारंटी योजना की घोषणा के बाद चुनावी चर्चा फिर बुनियादी मुद्दों की ओर मुड़ रही है. मजे की बात यह है कि न्यूनतम आय की गारंटी का तीर चलानेवाली कांग्रेस को खुद पता नहीं है कि उसने क्या घोषणा की है! पहले दिन राहुल गांधी ने कहा कि जिस भी परिवार की ₹12,000 प्रति माह से कम आय है, उसे बकाया राशि की भरपाई की जायेगी.
वैसे पार्टी फूंक फूंककर कदम रख रही है. अगले ही दिन कांग्रेस ने स्पष्ट किया कि अलग-अलग परिवारों को अलग-अलग राशि की भरपाई नहीं होगी, बस सबसे गरीब पांच करोड़ परिवारों को सीधे हर महीने ₹6,000 दिया जायेगा. पहले कांग्रेस के प्रवक्ता ने इशारा किया कि इस योजना को लागू करने के लिए गरीबी उन्मूलन की कुछ अन्य योजनाओं में कटौती की जा सकती है. फिर पार्टी ने स्पष्ट किया कि गरीबों के कल्याण के लिए चल रही योजनाओं जैसे सस्ता राशन, मनरेगा, आंगनवाड़ी और प्रधानमंत्री आवास योजना में कोई कटौती नहीं की जायेगी. कांग्रेस यह भी नहीं बता पायी है कि इस योजना के लिए पैसा कहां से आयेगा. जाहिर है, इतने बड़े खर्चे के लिए कहीं ना कहीं टैक्स बढ़ाना पड़ेगा, लेकिन कांग्रेस इस सवाल से मुंह चुरा रही है. ‘गरीबी हटाओ’ के नारे की हकीकत सारा देश जानता है.
कमल फूल वाली पार्टी भाजपा की स्थिति सांप-छछुंदर जैसी हो गयी है. ना निगलते बन रहा ना उगलते बन रहा. एक तरफ भाजपा के प्रवक्ता कहते हैं कि यह योजना तो हमारे समय में अरविंद सुब्रमण्यन ने सुझायी थी, कांग्रेस चोरी कर रही है. अगर यह सच है, तो सवाल उठता है कि भाजपा ने इसे लागू क्यों नहीं किया? फिर वे कहते हैं कि यह योजना तो गरीबों को भीख देनेवाली है, उन्हें कामचोर बनायेगी.
भाजपा जो धीरे-धीरे कांग्रेस बनने की ओर अग्रसर है-ऐसा विधानसभा चुनाव के नतीजे और लोकसभा चुनाव की रणनीति को जांचने-परखने के बाद कहा जा रहा है-पार्टी ने जिस तरह 11 लोकसभा सीटों पर चेहरे उतारे हैं, वे बहुत आकर्षक, मंजे हुए या जनता के बीच लोकप्रिय नही हैं. ऐसे में पार्टी 5-6 सीटें ही जीत जाए तो बड़ी बात होगी. राजनीतिक विश्लेषक मानते हैं कि भाजपा रायपुर, बस्तर, कोरबा, बिलासपुर और रायगढ़ सीट पर कमजोर नजर आ रही है.
अपने अतीत के गौरव से जगमगाती पार्टी को यह समझाने की जरूरत आन पड़ी है कि सारे घर के बदल डालूंगा कि तर्ज पर आलकमान ने वरिष्ठ सांसदों की टिकट तो काट दी लेकिन उसके पीछे कारण क्या थे? रमेश बैस जैसे वरिष्ठ और बेदाग छबि के सांसद या रायगढ़ में केंद्रीय राज्यमंत्री विष्णु देव साय की टिकट काटने का आधार क्या रहा? बस्तर में पूर्व मंत्री केदार कश्यप की अनेदखी भी पार्टी को भारी पड़ सकती है.
यह समझ रेखांकित होना चाहिए कि पार्टी ने विधानसभा चुनाव में भी कई नये चेहरे उतारे गए थे, बमुश्किल 10 प्रतिशत भी नही जीत सके. हालांकि पार्टी का यह दावा कि सभी सीटों पर पीएम नरेन्द्र मोदी चुनाव लड़ रहे हैं, जीतने के लिए अच्छा आत्मविश्वास है परंतु 2004 में इंडिया शाइनिंग का हश्र भी याद रखना चाहिए. वैसे सौ बात की एक बात यह है कि देश पीएम नरेन्द्र मोदी पर दुबारा विश्वास जताना चाहता है इसलिए पार्टी की नैया पार हो सकती है.
छत्तीसगढ़ के कई भाजपा नेताओं को लगता है कि 72000 रूपये वाली योजना की तरह भाजपा को या पीएम मोदी को चुनावी घोषणा—पत्र में लाना चाहिए जोकि कांग्रेस की योजना पर दहला’ मारने जैसा हो. लोकसभा चुनाव में कोई भी रिस्क लेना ठीक नही होगा. पिछला सबक पार्टी भूली नही है. छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने किसानों की कर्जा माफी का जो वादा किया, उससे मतदाता आकर्षित हुआ और कांग्रेस की सरकार बनवा दी. इसके बाद पार्टी के नेता कोई रिस्क नही लेना चाहते.
आईना दिखाने वाला सवाल यह है कि भाजपा ने हर किसान परिवार को सालाना 6,000 रुपये देने की योजना की घोषणा क्यों की थी? फिर वे कहते हैं कि ऐसी योजना में गरीबों की पहचान कैसे होगी? यह आपत्ति दर्ज करते समय भाजपा प्रवक्ता भूल जाते हैं कि उनकी सरकार ने ही आयुष्मान भारत योजना घोषित की है, जिसमें 10 करोड़ गरीब परिवारों को चिह्नित करने का प्रावधान है. अगर उस योजना में गरीबों को चिह्नित किया जा सकता है, तो इस योजना में क्यों नहीं? गोयाकि कांग्रेस के पास भी पूर्ववर्ती रमन सरकार और केन्द्र की मोदी सरकार कई नाकामियां हैं जिसे लेकर वह भाजपा को कटघरा में खड़ा करती आ रही है. विशेषकर नोटबंदी, जीएसटी, हिन्दुत्व के मुददे पर नाकारापन, पुलवामा हमला और राफेल जैसे जोर पकड़ चुके मुददे से वह भाजपा को घेरना प्रारंभ कर दिया है. न्यूनतम आय गारंटी योजना, मोदी हटाओ, देश बचाओ, किसानों की बात, बघेल के साथ, राफेल, नीरव, माल्या, अंबानी, अडानी का जिक्र आता रहेगा चुनावी भाषणों में. भूपेश सरकार के पिछले तीन महीनों का काम भी कांग्रेस के लिए अमोघ अस्त्र की तरह काम करेगा.
दूसरी ओर विपक्षी भाजपा ने कांग्रेस नेतृत्व वाली प्रदेश सरकार को कटघरे में खड़ा करना प्रारंभ कर दिया है. उसका आरोप है कि राज्य में सरकार बनने के बाद बढ़ी गुंडागर्दी, ट्रांसफर को उद्योग की तरह बढ़ावा देना, नई सरकार में जमकर अवैध वसूली, आपराधिक घटनाओं का बढऩा, शांति व्यवस्था पर प्रश्न चिन्ह लगना, कांग्रेस के विधायक का अपमान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और देश की सुरक्षा, राहुल और प्रियंका से जुड़ा परिवारवाद, भाजपाशासन और कांग्रेसशासन में विकास की तुलना इत्यादि कमल फूल वाली पार्टी के लिए हथियार की तरह हैं जिनका इस्तेमाल कर वह लोकसभा चुनाव 2019 फतह करना चाहेगी.
भारतीय चुनावों और सियासी शख्सियतों पर गहरी नजर रखने वाली एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स यानी एडीआर ने 2018 के अक्तूबर-दिसंबर में एक सर्वे किया। उसमें उसने जो 10 प्रमुख मुद्दे पाए, वे वही हैं, जिन पर पिछले 70 साल से बहस चल रही है। ये मुद्दे हैं- रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, स्वच्छ पेयजल, सड़क, सार्वजनिक परिवहन, सिंचाई, कृषि कर्ज, फसलों की बेहतर कीमत, कृषि सब्सिडी और कानून-व्यवस्था। अगर आप इन मुद्दों के आलोक में सियासी दलों के नारों को देखें, तो असलियत समझ में आ जाएगी। सियासी नारों से न तो गरीबी हटी, न हर हाथ को काम मिला और न हर खेत को पानी। यही वजह है कि 2019 के चुनाव पुराने ढर्रे पर लौट रहे हैं। यह दुखद है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं) (ये लेखक के निजी विचार हैं.)


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