अरुण वोरा को उत्कृष्टता अलंकरण पर विशेष
समर शेष है, जन-गंगा को खुलकर लहराने दो
मंज़िल भी पता है और रास्ता भी मालूम है। चलूंगा… मग़र ज़माने की रवायत से नहीं, अपने पिता के पद-चिह्नों पर। जी हाँ, ये हैं दुर्ग शहर के विधायक अरुण वोरा (Arun Vora), जिन्हें छत्तीसगढ़ विधानसभा में उत्कृष्टता के लिए अलंकृत किया गया। काश! बाबूजी ये क्षण अपनी आँखों से देख पाते… यक़ीनन, उनका सीना गर्व से चौड़ा हो जाता।
“समर शेष है, जन-गंगा को खुलकर लहराने दो,
शिखरों को डूबने और मुकुटों को बह जाने दो,
पथरीली ऊँची जमीन है?
तो उसको तोड़ेंगे,
समतल पीटे बिना समर की भूमि नहीं छोड़ेंगे!”
राष्ट्रीय कवि रामधारी सिंह दिनकर की कविता ‘समर शेष है’ की ये पंक्तियां अरुण वोरा (Arun Vora) पर पूरी तरह मौज़ूँ नज़र आ रही है। उन्होंने राजनीति की पथरीली और ऊँची-ज़मीन को न केवल तोड़ा, अपितु उसको समतल कर उस पर मार्ग बनाने का भी काम किया। एक दिग्गज का पुत्र होना क्या होता है, इसे बहुत करीब-से अनुभव किया, मगर राह नहीं छोड़ी! पद चिह्नों पर आज भी चल रहे हैं… उसी संघर्ष, समर्पण, सहजता, सरलता को साधे सफलता से जन-गंगा की लहरों को अपने अनुकूल करते शिखर को स्पर्श करने!
राजनीति को काजल की कोठरी कहा जाता हैं। उसमें रहना और बेदाग़ बने रहना, सुधीजन इसे परस्पर विरोधाभासी बताते हैं। कबीर दास जी ने कहा है- बहता पानी निर्मला, बंधा गंदिला होय। अरुण वोरा (Arun Vora) भी एक दरिया के मानिंद बहते रहते हैं दुर्ग (Durg) के विकास के लिए। और, दरिया जब बहता है तो अपने आस-पास हरियाली भी बांटता चलता है और जो भी इस पानी के साथ मिलता है वह सबकुछ निर्मल और उजला नजर आने लगता है।
बहरहाल, भाई अरुण वोरा (Arun Vora) जी को बहुत-बहुत बधाई… वे राजनीति का वह क-ख-ग लिखें, जो वर्तमान परिदृश्य में भी सार्थक नज़र आये और आने वाली पीढ़ी इसी नज़ीर को अपनाकर जन सेवा के कार्य करे। यशस्वी जीवन की मंगलकामनाओं के साथ…
और अंत में उनके लिए-
“यही ज़ुनून, यही एक ख़्वाब मेरा है,
वहां चिराग़ जला दूँ जहां अंधेरा है …”
मनीष वोरा
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