सीधे सरल अरुण वोरा को रायपुर की कठिन डगर

छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में नगरीय निकाय चुनाव का शंखनाद होना बाकी हैं. सभी दल अपनी-अपनी बिसात बिछा रहे हैं. जंग के पहले की तैयारियां चल रही हैं. सत्ताधरी दल कांग्रेस ने भी अपनी सेना के लिए आज सारथियों की घोषणा कर दी. प्रदेश के सबसे प्रतिष्ठित रायपुर (Raipur) नगर निगम के लिए अरुण वोरा (Arun Vora) को प्रभारी बनाया गया. सीधे सरल वोरा को कठिन डगर. याने की काटों का ताज. क्योंकि लगभग एक दशक से यहां कांग्रेस का महापौर बन रहा हैं. स्थानीय सत्ता के खिलाफ स्वाभाविक आक्रोश चरम पर हैं. चौतरफा दबाव और भाजपा में जीत का जज्बा उनके रणनीति कौशल की परीक्षा लेगा, वहीँ संगठन का लंबा अनुभव उन्हें कुछ रहत दे सकता हैं.

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प्रदेश की राजनीति में वोरा परिवार का अपना अलग स्थान हैं. आलाकमान का विश्वास उनकी सबसे बड़ी ताकत हैं. अरुण वोरा के लिए ये परीक्षा की घड़ी हैं. उन्हें रायपुर में कांग्रेस का महापौर बनाने की महती जिम्मेदारी संगठन ने दी है. राजधानी होने के कारण पुरे प्रदेश में राजनीतिक हवा यही से बनती और बिगडती हैं. मुख्यमंत्री बघेल ने भी उन पर बड़ा भरोसा जताया हैं. यदि सिंह आला और गढ़ गेला की स्थिति बनी तो उन्हें जवाब देना मुश्किल होगा. भाजपा इस बार सता से बाहर है वह भी राजधानी में अपना महापौर चाहेगी. कांग्रेस के सता में होने के कारण हर वार्ड में दावेदारों की लंबी फेहरिस्त हैं. सता और संगठन में महत्त्वपूर्ण पदों में बैठे हुए लोगों के साथ लम्बे समय से उपेक्षित अपनों का भी दबाव होगा.

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कांग्रेस के साथ साथ उन्हें भाजपा के दिग्गजों से भी दो दो हाथ करना होगा. राजधानी रायपुर में भाजपा के चुनावी शतरंज के माहिर खिलाडी बृजमोहन अग्रवाल के साथ रमन केबिनेट में दिग्गज मंत्री रहें राजेश मूणत, शांत रहकर तेज प्रहार करने वाले सांसद सुनील सोनी जैसे खिलाडियों को डॉज देते हुए अपना गोल करना होगा. हालाकि उनके साथ कांग्रेस के दिग्गज मंत्री रविन्द्र चौबे का साथ होगा. लेकिन मोर्चा तो उन्हें ही संभालना होगा और अपनी साख को सहेजते हुए रणनीति तैयार कर अपने साथियों को साध किला फतह करना ही होगा. राजधानी का फैसला उनकी छवि को भविष्य के लिए सवांर सकता हैं. और उनकी राजनीतिक सूझ-बुझ और रणकौशल की धाक मना सकता हैं.

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सीधे सरल स्वभाव के अरुण वोरा के साथ अनुभव का खजाना हैं. उन्हें भूपेश बघेल सरकार की योजनाओं के शस्त्र से राजधानी में कांग्रेस का परचम लहराना हैं. लहरों के साथ तैर कर तो कोई भी मंजिल पा लेता हैं लेकिन विपरीत परिस्थितियों में जो गढ़ फतह करते हैं वो इतिहास रच लेते हैं. जैसा की भूपेश बघेल ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को सता के सिहांसन पर आसीन कर रचा हैं. कमोबेश यही चुनौती वोरा के सामने हैं. अब वे इस कठिन डगर पर चल कर काँटों के ताज को अपना स्वर्ण मुकुट बना पाते हैं की नहीं ये तो वक्त बतायेगा. लेकिन एक बात तो अच्छे से समझते हैं की जीत का कोई विकल्प नहीं हैं.

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अंत में ये दो लाइने …

“इसलिए तो यहाँ अब भी अजनबी हूँ मै,
तमाम लोग फ़रिश्ते हैं आदमी हूँ मै”.

मनीष वोरा

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं.)

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