रायपुर (अविरल समाचार). साधक जीवन की सम्यक व्यवस्थों को समाचारी (सम-आचारी) कहा गया है। साधना में गति प्रगति करने जीवन चर्या की व्यवस्था होना आवश्यक है। साधक जीवन की अनेक कल्प मर्यादाएं होती है जो एक दूसरे साधक के परस्पर सहयोग के बिना स्थिर नहीं रहपाती उनका सम्यक अनुशीलन नहीं हो सकता है।
आज टैगोर नगर लालगंगा पटवा भवन में साध्वीद्वय डॉ. विजय श्री जी.म.सा. एवम् प.पू. तरूलता श्री जी.म.सा. के सानिध्य में चातुर्मास प्रवचन श्रृंखला चल रही है इसके अंतर्गत आज डॉ. विजय श्री म.सा. ने उत्तराध्यन सूत्र के 26,27 और 28 वें अध्याय के सूत्रों का बोध कराया। आपने बताया कि साधक जीवन को व्यवस्थित अनुशासन बद्ध बनाने दस प्रकार का समाचारी प्रतिपादन बताया गया है। जैसे साधक किसी कार्य से बाहर जाये तो वह अपने गुरूजनों को सूचित करके जावे, सहयोगी साथियों को पूछकर जाए पूछे कि उन्हें कोई काम है क्या, लौटकर आने की सूचना भी दें, सेवा आदि के लिए दूसरे सन्तों से पूछें। अपने गलत आचरण के प्रति सजग बना रहे, परिश्रम शील बना रहे। दूसरों की अनुग्रह दृष्टि को सम्मान दे। गुरूजनों तथा बड़ों का आदर सत्कार करें। श्रेष्ठ जनों के प्रति विनीत स्वभावी और आग्रह रहित वृत्ति वाला हो। स्मरण रहे यह नियमावली आत्मा नुशासन के द्वारा आचरित होती है। किसी के आग्रह या दबाव से नहीं। दबाव से किया गया कार्य कुण्ठा उत्पन्न करता है। आपने कहा साधनागत दिनचर्या कालखंडो में विभक्त किया जाता है अर्थात दिन रात के कुल 8 प्रहर है। उनमें चार प्रहार स्वाध्याय के लिए दो प्रहर ध्यान के लिए, दिन के तीसरे प्रहर में भिक्षाचर्या और रात्रि के तृतीय प्रहर में निद्रा का विधान है। इन्ही कालखंडो में प्रति लेखन, प्रतिक्रमण आदि आवश्यक क्रियाओं का निर्देश दिया गया है।
साधक यदि इन सदाचारों का हार्दिक विशुद्धतापूर्वक पालन कर ले तो उसकी साधना अबाघ होगी – उसे मुक्ति गमन से कोई रोक नहीं सकता । गुरूवर्या ने बताया कि साधक चर्या का प्रथम अंग गुरू विनय और अनुशासन बद्धता है। साधक के लिए भोजन प्रमुख नहीं, संयम निर्वहन प्रमुख है और किसी को पीड़ा पहुँचाकर साधना नही हो सकती।