छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव : पहले चरण के मतदान-प्रतिशत के संकेत और संदेश

आदमी अपने अंतस के बल का आकाश-दीप प्रज्जवलित करने में सफल रहा जिसके सहारे बस्तर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पगडंडियों से गुजरकर विकास के राजमार्ग का सफर तय कर सके। पर कांग्रेस की लाचारी यह रही कि उसके नेता आम बस्तरिहा की इस दृढ़ इच्छाशक्ति को पढऩे की जहमत ही नहीं उठा पाए। …निरंकुश नौकरशाहों का सामंती-रवैया जिस प्रदेश के हर आदमी, यहां तक कि सत्ता पक्ष के चुने हुए और मनोनीत जन-प्रतिनिधियों को भी संत्रास दे रहा हो, वहां एंटी इनकम्बेंसी को भुनाने में भी यदि कांग्रेस नाकारा नजर आ रही है तो इसके मायने दीवारों पर लिखी इबारत की तरह साफ हैं कि सत्ता की रेस में कांग्रेस पिछड़ रही है। … कांग्रेस चुनावी मैदान में पस्त नजर आ रही है तो समझिए कि कांग्रेस कितनी लाचार हो गई है!

      कांग्रेस की भाषा जता रही है हताशा, चुनौतियां भाजपा की भी कम नहीं हैं

                                       अनिल पुरोहित

पहले चरण के मतदान के बाद छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव की तस्वीर का खाका खींचने में जुटे सियासत के जानकार भी भौंचक सिर्फ इसलिए नहीं हैं कि नक्सलियों के “गनतंत्र” पर हमारा “गणतंत्र” भारी पड़ा है, बल्कि वे पिछले चुनाव के मुकाबले औसत मतदान में आई कमी को लेकर भी हैरान नजर आ रहे हैं। राजनीतिक प्रेक्षक मतदान के पहले चरण के समीकरण को लेकर अपने-अपने विश्लेषण के साथ सन्नद्ध हैं। इधर, भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस और जकांछ-बसपा गठबंधन के अपने दावे हैं। बस्तर में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी और गोंडवाना गणतंत्र पार्टी भी वजूद रखती हैं।

अब अगर पिछले 2013 के विधानसभा  चुनावों से चर्चा शुरू करें तो हमें एक तथ्य यह नजर आता है कि बस्तर की 12 और राजनांदगांव जिले की 06 सीटों पर भाजपा काफी पिछड़ गई थी और उसे इन 18 में से महज एक तिहाई सीटें ही मिल पाई थीं। अगर भाजपा समय पर जनमानस को पढऩे में जरा भी चूक जाती तो शायद भाजपा को  झटका लग जाता। पिछली बार सत्ता में वापसी के विश्वास में आत्ममुग्ध जो भाजपा टहलने के लिहाज से चुनावी मैदान में उतरी थी, वह सत्ता की चौखट में हांफते हुए ही दाखिल हो पाई थी। तब इन 18 सीटों पर भारी मतदान हुआ था और भाजपा को बस्तर की 12 में से सिर्फ 04 सीटें ही मिली थीं। पांच साल के बाद इस बार भाजपा ने अब मिशन 65 प्लस का लक्ष्य सामने रखकर चौथी बार सरकार बनाने की तैयारी दिखाई है तो यह सवाल उठना लाजिमी है कि पहले चरण के मतदान के बाद भाजपा खुद को कहां खड़ा देख रही है?  मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह  18 में से 14 सीटों पर भाजपा की जीत का दावा कर रहे हैं तो कांग्रेस को बिफरता हुआ देखना विस्मित नहीं कर रहा है।

दरअसल, कांग्रेस को पहले चरण के मतदान के बाद हताशा में घिरा हुआ देखा जा रहा है तो उसकी और दीगर वजहें चाहे जो हों, मतदान के पिछली बार के मुकाबले इस बार कम प्रतिशत में ही इस हताशा की मूल वजह छिपी है। पर कांग्रेस सचेत होने के बजाय शुतुरमुर्ग बनने पर आमादा है और उसके नेता सच का सामना करने के बजाय निर्वाचन आयोग और ईवीएम मशीनों के दुरुपयोग का वही बेसुरा राग आलापने में जुट गये हैं। उन्हें इस बात का जरा भी रंज नहीं था कि नक्सली खौफ के चलते बस्तर में लोकतंत्र के इस महापर्व पर संशय की आसुरी-छाया पड़ रही थी। अब, यह लोकतंत्र की दृढ़ता है कि नक्सली दरिंदगी के खौफ की कालिमा को चीरकर बस्तर का आम आदमी अपने अंतस के बल का आकाश-दीप प्रज्जवलित करने में सफल रहा जिसके सहारे बस्तर अपनी रोजमर्रा की जरूरतों की पगडंडियों से गुजरकर विकास के राजमार्ग का सफर तय कर सके। पर कांग्रेस की लाचारी यह रही कि उसके नेता आम बस्तरिहा की इस दृढ़ इच्छाशक्ति को पढऩे की जहमत ही नहीं उठा पाए और अर्बन नक्सलियों की भाषा बोलकर उसके स्टार प्रचारक नक्सलियों को क्रांतिकारी बताते शर्म महसूस लहीं कर रहे थे। खुद कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी को भी अर्बन माओवादियों की पैरवी करते समूचे देश ने देखा-सुना है।

राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि कांग्रेस अगर बस्तर के मन को पढऩे और लोगों के विश्वास को संबल प्रदान करने में ऊर्जा लगाती तो भले ही मतदान का यह प्रतिशत ज्यादा नहीं बढ़ पाता और पिछली बार के प्रतिशत को ही छू जाता तो शायद कांग्रेस के नेता निर्वाचन कार्य में लगे अधिकारियों-कर्मचारियों को घूसखोर बताने और ईवीएम के नाम पर अपना बेसुरा राग आलापने से बच जाते। पर अब मतदान तो हो चुका और बस्तर के मिजाज को भांपने वाले प्रेक्षक भी एक बात तो मान ही रहे होंगे कांग्रेस इस बार गफलत की शिकार हो गई। सवाल यह है कि कांग्रेस के रणनीतिकारों ने अपने चातुर्य पर बट्टा क्यों लगने दिया? और क्यों भाजपा 14 सीटें जीतने का दावा करने की स्थिति में नजर आ रही है? छत्तीसगढ़ राज्य बनने के बाद जब पहली बार चुनाव हुए तब इन 18 सीटों पर मतदान का औसत प्रतिशत 65 के आसपास रहा था, जिसमें बस्तर की 12 सीटों का मतदान-प्रतिशत लगभग 60-62 था। और तब भाजपा इन 18 में से 13 सीटों पर काबिज हुई थी। सन् 2008 के चुनाव में इन 18 सीटों का मतदान-प्रतिशत भी 65 के आसपास ही था जिसमें बस्तर के लगभग 65 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले। इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस को बस्तर की क्रमश: 11 और 01 सीटें मिली थीं। पर सन् 2013 के चुनाव के हालात कुछ अलग थे। झीरम घाटी के नक्सली हमले में कांग्रेस नेताओं की पहली और दूसरी पंक्ति के कद्दावर शहीद हो गए थे। उस समय इन 18 सीटों पर 75 प्रतिशत से अधिक मतदान हुआ था। बस्तर का प्रतिशत भी लगभग इसी आंकड़े के आसपास था। इस चुनाव में भाजपा को महज 06 सीटें ही मिलीं जबकि कांग्रेस 12 सीटों पर काबिज हो गई थी। इनमें बस्तर की 08 सीटें कांग्रेस के पाले में गईं तो भाजपा राजनांदगांव जिले में भी सिर्फ 02 सीटें ही जीत पाई। राजनीति की बारीकियों पर नजर रखने वाले जानकार मानते हैं कि यह मतदान के प्रतिशत का प्रभाव था। और इसीलिए, इस बार के चुनाव के पहले चरण में मतदान का प्रतिशत घटकर 61 के आसपास पहुंचा देखकर कांग्रेस नेतृत्व बदहवास नजर आ रहा है। अब अपना पैंतरा बदलकर कांग्रेस जिस भाषा में बोल रही है, जैसी असंयत टिप्पणियां कर रही है, सियासी प्रेक्षक उसे कांग्रेस की हताशा मान रहे हैं। पिछले चुनाव में भी यही ईवीएम थी, जिसके बटन दबने से कांग्रेस को पहले चरण की 18 में से 12 सीटें मिली। तब कांग्रेस को ईवीएम से गिला-शिकवा नहीं हुआ! क्यों? तब कांग्रेस को क्यों यह अंतर्ज्ञान नहीं हुआ कि मतदान अधिकारियों व कर्मचारियों को पैसे दिए गए ! “कड़वा-कड़वा थू और मीठा-मीठा गप” करना ही क्या कांग्रेस का राजनीतिक चरित्र हो रहा है?

पर एक बात और ! 2013 के चुनाव में भाजपा ने दूसरे चरण में अच्छा होमवर्क कर लिया था। इसकी दो वजहें थीं। एक तो पार्टी के रणनीतिकार प्रदेश का मूड भांपने में किसी गफलत का शिकार नहीं हुए और दूसरे पार्टी के रणनीतिकारों ने दूसरे चरण की 72 सीटों पर अपनी समूची संगठनात्मक शक्ति लगा दी थी, पर कांग्रेस सत्ता मिल जाने के हसीन ख्यालों में ही डूबी रह गई। रही-सही कसर तब के एक बड़े कांग्रेसी नेता के बड़बोलेपन ने पूरी कर दी और इस नेता को पटखनी देने के फेर में ही सारे कांग्रेसी नेता लामबंद हो गए। लेकिन, कांग्रेस अगर इस बार यह सोच रही है कि पिछले चुनाव जैसा ही कुछ हो जाएगा और अब दूसरे चरण में वह बड़ा उलटफेर कर लेगी, तो शायद वह अब भी गफलत में है! निरंकुश नौकरशाहों का सामंती-रवैया जिस प्रदेश के हर आदमी, यहां तक कि सत्ता पक्ष के चुने हुए और मनोनीत जन-प्रतिनिधियों को भी संत्रास दे रहा हो, वहां एंटी इनकम्बेंसी को भुनाने में भी यदि कांग्रेस नाकारा नजर आ रही है तो इसके मायने दीवारों पर लिखी इबारत की तरह साफ हैं कि सत्ता की रेस में कांग्रेस पिछड़ रही है। टिकटों के मसले पर मचे घमासान, बगावत और असंतोष के सुरों के बावजूद भाजपा अपनी बात लोगों तक पहुंचा रही है, लेकिन कांग्रेस के पास तो कहीं  संगठन की ताकत नजर ही नहीं आ रही है। जिस पार्टी का प्रदेश अध्यक्ष टिकटों की सौदेबाजी, सीडी कांड जैसी आपराधिक साजिशों के आरोपों से जूझ रहा हो, जिसके प्रदेश प्रभारी को एक पार्षद और प्रदेश अध्यक्ष की खुलेआम धमकियां सुननी पड़ रही हों, वहां संगठन नाम का तंत्र कहां ढूंढ़ें? तो फिर कांग्रेस दूसरे चरण में दम कैसे मारेगी? और भाजपा शासन से उपजे जन-असंतोष के बाद भी कांग्रेस चुनावी मैदान में पस्त नजर आ रही है तो समझिए कि कांग्रेस कितनी लाचार हो गई है!

चुनौतियां भाजपा के सामने भी कुछ कम नहीं है। पर अपने संगठनात्मक ढांचे की तमाम कमजोरियों के बावजूद वह एक दिख तो रही है और दूसरे चरण में प्रचार के लिए उसके पास केंद्र के चेहरे भी हैं और प्रदेश नेताओं की भी एक कतार है। पहले चरण के मतदान के बाद खुद मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह पूरे प्रदेश में मोर्चा सम्हाल लेंगे जो तमाम सर्वे में मुख्यमंत्री के तौर पर फिर जनता की पहली पसंद के रूप स्थापित हुए हैं, पर कांग्रेस के पास कौन है? सीडी कांड, टिकटों की सौदेबाजी और आपसी सत्ता संघर्ष से उपजे नेताओं के अलगाव ने कांग्रेस नेतृत्व को तो बैकफुट पर ला खड़ा किया है। ऐसे में कार्यकर्ताओं के असंतोष, उनके मनमाने आचरण को थामेगा कौन? और, दूसरे चरण के लिए  उन्हें कटिबद्ध करेगा कौन? फिर, नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव, प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल, डॉ. चरणदास महंत, सांसद ताम्रध्वज साहू, सत्यनारायण शर्मा, धनेंद्र साहू जैसे बड़े चेहरे तो खुद अपने-अपने विधानसभा क्षेत्रों में मतदान के दिन तक उलझे रहने के लिए विवश रहेंगे। अब वे अपनी सीट बचाने की जद्दोजहद में जुटें या सीटें बढ़ाने की कवायद करें? राजनीतिक प्रेक्षक इसलिए मान रहे हैं कि भाजपा अगर सत्ता में वापसी के प्रति आश्वस्त है तो उसके कारण और चाहे जो हों, यह तो तय मानकर चला जाए कि अपने राजनीतिक चरित्र के कारण कांग्रेस का समूचा ढांचा ही अप्रासंगिक हो गया है, बेचारगी का प्रतीक हो गया है। देखना अब यह भी है कि भाजपा अपना 2003 का प्रदर्शन दुहराती है या 2008 का?

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनीतिक विश्लेषक है. ये उनके निजी विचार है.)

 

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