छत्तीसगढ़ चुनाव 2018 : चुप्पी साधे मतदाता का मन क्या बोल रहा है ?

छत्तीसगढ़ विधानसभा चुनाव : मतदान प्रतिशत को लेकर अनुमानों को आकार देने की कवायद

             अनिल पुरोहित 

सागर की गहराई की थाह पा सकना कोई आसान नहीं है और इसलिए उसके भीतर की हिलोरें कब कौन-सा रूप धर लें, कहा नहीं जा सकता। अलबत्ता, सागर के तट पर बैठकर-टहलकर उसकी उठती-गिरती, बनती-मिटती और मचलती लहरों को गिनना ही हम सबके बस में होता है। छत्तीसगढ़ में विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में चुप्पी साधे मतदाताओं का मन सागर की तरह गहरा दिखा और उसके मन में क्या चल रहा है, इसकी थाह भी पाने में सब बेबस रहे हैं। हां, लहरों की मानिंद मतदान के कम-ज्यादा प्रतिशत को लेकर एक अनुमान को आकार देने की कोशिशें जारी है।

दोनों ही चरणों में मतदाताओं ने जिस तरह अपने ‘मन की बात‘ को बटन के जरिए ईवीएम में लॉक किया है, उसके फलितार्थ खंगालते एक ओर राजनीतिक दलों के सूरमा बेचैन हैं तो उसके निहितार्थ तलाशने समीक्षक व सियासत के जानकार निर्णायक तौर पर कुछ भी कहने से बच रहे हैं। इसकी अपनी वजह भी है, क्योंकि जीत के दावों-प्रतिदावों के बीच मैदानी सच से रू-ब-रू कार्यकर्ता भी ताल ठोककर कुछ कहने से बच रहे हैं। बावजूद इसके, पहले चरण के मतदान ने लोकतंत्र के प्रति जो आस्था का दीप प्रज्जवलित किया था, उसकी स्वर्णाभ-रश्मियों के आलोक में दूसरे चरण के मतदान के बाद लोकतंत्र के प्रति आस्था और अधिक दमकी नजर आ रही है। इसीलिए सारी बातों के बावजूद मतदान के इस प्रतिशत में छिपे मतदाता के मन को टटोलने की कवायद में सभी लोग अपने-अपने स्तर पर जुटे हैं।

विधानसभा चुनाव के दूसरे चरण में मैदानी इलाके की जिन 72 सीटों के लिए मंगलवार  को मतदान हुआ है, उसका प्रतिशत 76.35 फीसदी बताया गया है। इसी आधार पर मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष धरमलाल कौशिक एक बार फिर मिशन 65 प्लस को हासिल करने के प्रति आश्वस्त नजर आए। मतदान के भारी प्रतिशत को कांग्रेस ने भी अपने पक्ष में बताया है और सत्ता मिलने का विश्वास भी कांग्रेस नेताओं को है, पर कुछ बातें हैं जिन पर गौर फरमाना इन दावों-प्रतिदावों के जमीनी-सच तक पहुंचने के लिए जरूरी है। सन् 2003, 2008 और 2013 के चुनावों का मतदान प्रतिशत मैदानी इलाके की 72 सीटों पर अमूमन इतना ही या इसके पास ही नजर आया, पर इस बार का चुनाव अलग रहा। 2003 और 2008 में सत्ता की दहलीज बस्तर को मानने वाले राजनीतिक पंडित 2013 में मैदानी इलाके के नतीजों से भौंचक रह गए थे। इस बार मतदाता क्या चाह रहा है, यह अंत तक अव्यक्त ही रहा। इसीलिए राजनीतिक दल बेचैन हैं। टिकट वितरण से लेकर मतदान तक यह तो कतई नहीं लगा कि राजनीतिक दलों ने पिछले चुनावों से कोई सबक लेने की जहमत उठाई हो। शायद इस बार मतदाताओं का यह ‘मौन‘ राजनीतिक दलों और व्यक्तिनिष्ठा के केन्द्र बने नेताओं के लिए कोई करारा सबक लिए ईवीएम में कैद हो गया है तो विस्मय नहीं होना चाहिए।

असंतोष, अंतर्कलह, बगावत, भीतरघात और अनुशासनहीन बड़बोलापन तो मानो अब सभी दलों का राजनीतिक चरित्र होता ही जा रहा है, पर भाजपा में इसके बावजूद कार्यकर्ताओं की एक जबर्दस्त फौज मैदानी मोर्चा संभाले हुए थी। प्रधानमंत्री और भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने भी छत्तीसगढ़ पर फोकस किए रखा और फिर दूसरी-तीसरी पंक्ति के नेताओं ने भी कसर नहीं छोड़ी। यह अलग बात है कि भाजपा के खेमे में नजारा 2013 का नहीं था, पर इससे न तो उसका हौसला कम दिखा और न ही वह बहुत ज्यादा आत्ममुग्ध दिखी। इसका लाभ वह उठाती नजर आ रही है।

कांग्रेस ने चुनाव तो लड़ा, पूरे मन से लड़ा पर सत्ता पाने के शार्ट-कट्स ने कांग्रेस को कई झटके भी दिए। सीडी कांड, स्टिंग ऑपरेशन, टिकटों की सौदेबाजी जैसे मामले थे, जिसने कांग्रेस को झटके दिए। पर कांग्रेस के लिए हास्यास्पद स्थिति भी कांग्रेस के नेताओं ने पैदा की। अपनी बात पर भरोसा कराने के लिए नेताओं को इतना गिड़गिड़ाता पहली बार ही देखा गया। अपने ही घोषणा पत्र में कर्जमाफी के वादे के लिए गंगाजल हाथ में लेकर कसमें खाते कांग्रेस नेताओं ने खुद अपनी साख पर बट्टा लगाया तो हिंसक नक्सलियों को क्रांतिकारी बताकर अपने वजूद को एक बार फिर संदेह के दायरे में ला खड़ा किया। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी हों या फिर दीगर कांग्रेस नेता, उन्होंने जनता के मन को कितना छुआ? जनता के दिल में वे कितना उतर पाए? -ये सवाल ही छत्तीसगढ़ में कांग्रेस का भविष्य तय करेंगे। पर सवाल आज का है, और कांग्रेस नेताओं के दावों में जमीनी-सच कितना है, यह तो 11 दिसम्बर को पता चल ही जाना है, पर अभी एक और मोर्चे पर कांग्रेस को जूझना है। कांग्रेस अगर सत्ता पा भी जाए तो मुख्यमंत्री बनेगा कौन? यकीनन, यह कांग्रेस का अंदरूनी मामला है, पर है तो सीधे जनता से जुड़ा हुआ। और अगर, मुख्यमंत्री का फैसला विधायक दल करने वाला है तो पंजाब के एक मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू किस हैसियत से एक जगह  चरणदास महंत तो दूसरी जगह टीएस सिंहदेव को मुख्यमंत्री घोषित कर रहे थे? क्या सिद्धू ने कांग्रेस के राजनीतिक मंच को कॉमेडी शो का मंच बनाने का काम नहीं किया? परस्पर अविश्वास और अनिश्चय के धरातल पर खड़ी छत्तीसगढ़ कांग्रेस जनादेश हासिल करने के दावे तो खूब कर रही है, पर जन-विश्वास का आलोक वह किस स्रोत से लाएगी, जिसके सहारे वह अपना आगे का सफर जारी रखेगी।

भाजपा के सामने आज नेतृत्व को लेकर भले ही मारामारी न हो, पर नौकरशाहों के बेलगाम सामंती आचरण ने भाजपा के प्रति आक्रोश को जन्म तो दिया है। इससे भाजपा को जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई करना क्या भाजपा के लिए किसी चुनौती से कम होगा? रही बात पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी की जनता कांग्रेस की, तो वे ‘कुमारस्वामी‘ बनने चले थे ‘जोगी‘ बनकर भी नहीं रहे। और अब क्या वे किंगमेकर भी बन पाएंगे? भाजपा को समर्थन देने की बात कही। ‘राम‘ को साधने की कोशिश में ‘माया‘ रूठ गई तो धर्मग्रंथों को हाथ में लेकर कसमें खाते अजीत जोगी ने यह रेखांकित कर दिया कि अब नेताओं के कहे पर किसी को विश्वास ही नहीं रह गया है।

अब लाख टके का सवाल यह है कि सरकार किसकी आएगी, डॉ. रमन में लोगों का मन रमेगा या कांग्रेस के वादों पर लोग ऐतबार करेंगे?  जोगी-माया गठबंधन की गांठ कितने दिन बंधी रहेगी? कांग्रेस 50 प्लस के दावे कर रही है तो भाजपा 65 प्लस के लिए आश्वस्त है। परिणाम तो ईवीएम में लॉक है, और उसके लिए 20 दिनों तक इंतजार करना सबकी नियति!

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार व राजनीतिक विश्लेषक हैं. ये उनके निजी विचार हैं)

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